मंगलवार, 26 मार्च 2013

 

 

--- मै फूल हूँ----

 मै फूल हूँ
मेरे कुछ सपने है
एक प्रेमी है
चुपके से आता है
आलिंगन कर मेरी आत्मा की सुगंध को
चुरा ले जाता है
विखेर देता है
गलियों , आगन , और घर घर में
किन्तु लोगों को मेरा खिलना रास न आता है
जीने क्यों मुझे जीने नही देते है ?

पूजा में , प्यार में
श्रंगार में , हार में
व्यौहार में , त्यौहार में
असमय ही मौत के घाट उतार देते है
जीने क्यों मुझे जीने नही देते है ?

गमलो से
गलियों से
बाग़ व् बगीचों से
प्यार भरी नजरों से
बस देखने के सिवा मेरा क्या दोष ?
चाँद पैसों के लिए धर्म के दरवाजों पर
अधर्मी बन बेच देते है ..
जीने क्यों मुझे जीने नही देते है ?

अपनी खुशियों के लिए
तोड़ने से पहले
मेरी गर्दन मरोड़ने से पहले
एक बार रुको..सोचो..प्यार से देखो..
जीयों और जीने दो  !!

--अनंत चैतन्य - लखनऊ ---

  

नौका विहार

( एक घनाक्षरी छंद )

नीरव निशा में नीली यमुना के नीर तीर
करती नौका विहार , संग वृज रानी है  !!
नीले नीले अम्बर की नीलिमा निहारे नाथ
श्याम देत नील मणि , नेग की निशानी है !!
नूपुर पहिर नाथ , नाच  दिखरावत है
नैनन निहाल नैन , मारि मुस्कानी है !!
नैन ललचावै , दिखरावे नखरैल भाव
नन्द के नंदन को , चिढावे राधारानी है !!

---अनंत चैतन्य - लखनऊ ----

सोमवार, 25 मार्च 2013

 

 

काशीनाथ की होली

         ( एक घनाक्षरी छंद )
उमा संग काशीनाथ, होली खेले गंगा घाट
अंग में लगाये भस्म , भंग भी चढ़ाये है  !!
शमशान घाट बीच , शिवा संग बैठे शिव
भूत प्रेत नाचे सब , शिव    मुस्काये है   !!
रंग और भंग बीच , गंग भी तरंगित है
गणपति गणेशजी , ढुमका  लगाये है  !!
डमकावत   डमरू , बम बम महानाद
विश्वनाथ बाबा होली , टोली को खिलाये है !!
---अनंत चैतन्य - लखनऊ ----

गुरुवार, 7 मार्च 2013




( दो दिलों की कहानी, जो मिल न पाए --एक गीत में )

----तेरे सिवा कुछ याद न आये ,  घुप्प अँधेरे में  ----

नही पड़ा कभी प्रीत प्रेम के , किसी झमेले में !
पहली बार मिले थे उससे , नितांत अकेले में !!

याद हमें जब बैठे संग संग , घर खपरेले में  !
हम दोनों में नेह भाव था , ज्यो गुरु चेले में !!

देखी प्रेम की बहती नदिया , उस अलबेले में !
पता नही कब एक हुए दिल , प्रेम के खेले में !!

क्रम एह चलता रहा मिलन का , शाम सबेरे में !
हम दोनों फिर बिछड़ गए , रूढ़िवादी मेले में  !!

छोटा उसका हाथ साथ , उस भीड़ के रेले में !
कमल तभी कुम्भलाया उस , पोखर मटमैले में !!

आशाओं का किरण दिखे , हर दिन के उजेले में !
तेरे सिवा कुछ याद न आये ,  घुप्प अँधेरे में  !!

-- --अनंत चैतन्य - लखनऊ ---


गोपियों की चीर हरने वाले श्याम !!
तुम कब आओगे ?
मेरे भी वस्त्र चुराओगे ??
निशा रुपी सरोवर में
निद्रा स्नान करते समय
काम क्रोध मद लोभ में रगें, सिले मेरे कपडे
जो छिपा देता हूँ अपनी ही काया में
और सुबह नींद से बाहर आकर
अहंकारी अंगडाईयों के साथ
पहन लेता  हूँ हरदिन
उन्हें कब चुरावोगे ,
बोलो , तुम मेरे वस्त्र कब चुरावोगे
कब मुझे उस बाल रूप
वस्त्र विहीन 
मूल स्वरुप से मिलाओगे ,
हे घनश्याम !!
बोलो मेरे वस्त्र कब चुराओगे
चीर हरो घनश्याम ,  हमारी पीर हरो !!

-----अनंत चैतन्य - लखनऊ -----