सोमवार, 6 फ़रवरी 2012


भाव जगत : भय  पर एक कविता


मैं था,
तुम थी,
सर्द की मरमरी धूप थी,
पर मै तुम्हें छू न सका,
क्योंकि, हमारे दिलों के कोने में कहीं बैठा भय था,
बार-बार रोक रहा था,
आलिंगन करने को ,
स्पर्श करने को !!
दिल ने समझाया,
प्रेम नहीं हे, कोई प्रदर्शन!
यह तो हे, सच्चा, शुद्धतम दर्शन !

इश्वर हो या प्रियतम,
एकांत चाहिए , एकाकार होने के लिए
पलकों के कपाट बंद करकें
हृदय के रंग महल में
अपने प्रियतम को बैठना होता हे
और वही रम जाना होता है !
तन, मन और आत्मा के तल पर,
एक दूजे में समाना होता है !
वहां दो नहीं बस एक बन जाना होता है !
चैतन्य पूर्ण होकर अनंत में बह जाना होता है !!


( व्यक्ति में अलग अलग तरह के भय होते है - एक अन्य तरह का भय  जिसमे व्यक्ति दूसरों की ज्यादा परवाह करता है वास्तविकता में जीने को छोड़ कर )


~~~~अनंत चैतन्य - लखनऊ ~~~~~~~~

ऋतुराज बसंत

                                  ऋतुराज बसंत

                                             ~~~~~~~~श्रृगार रस की अवधी कविता~~~~~~~~

                                   (एक साधक की पीड़ा, ईश्वर मिलन हेतु)
                   (एक प्रेयसी की पीड़ा, बसंत ऋतु में जिसका प्रियतम दूर है )
 
आयो रे ! सखि आयो रे !!
ऋतु राज बसंती आयो रे !!
चटख पलास खिले यौवन में,मस्त मदन मद छायो रे !!
नव तरु पल्लव वन उपवन बिच,बेलि ब्रक्ष लिपटायो रे !!
रस पराग का चाखत मधुकर, पशु,पक्षी बौराये रे !!
बौर आम्रपाली, अति शोभित, मलय पवन हर्षायो रे !!
क्रीडा रत रति कामदेव संगं में नृत्य प्रकृति दिखरायो रे !!
चहुँ दिश ऐसी मद मस्ती है, वर्णन मुख नहि आवे रे !!
रोम रोम मोरो फरकि रहो है , फगुआ अगनि लगावे रे !!
केहि से कहूँ दुख आपन सखि मोरि हमे कछु नहीं भावे रे !!
मोरे पिया बसे दूर देश में, उनको कोई बुलावे रे !!


                     ~~~~~~~~~~~अनन्त चैतन्य - लखनऊ ~~~~~~~~~