दुःख और सुख के घाटों से ,
यह जीवन नदिया बही जा रही !
इन घाटों पर ,
कुछ योगी है ध्यान लगाये !
कुछ मायावी जाल बिछाए !
नदिया को इनसे क्या लेना ,
प्रति पल प्रति छ्ण बही जा रही !!
जीवन नदिया बही जा रही !!
समय की धारा बस आगे की ओर खिसकती !
पीछे को यह लौट न सकती !
एक रस्ते पर कभी न बहती ,
कभी भटकती , कभी सिसकती ,
सीढ़ी बही ,तो कभी मचलती ,
इसका कोई बिस्तर है न कोई बिछौना ,
इसको तो रुकना न , न ही सोना !
मंजिल पर यह चली जा रही !
जीवन नदिया बही जा रही !!
जब भी यह धरती पर आई ,
यात्रा इसकी शुरू हो गयी ,
कुछ दिन माँ के पास रही फिर
आगे बढ़ी और , धीरे धीरे बड़ी हो गयी !
नित नित नूतन साथी आये ,
नव पथ पर कुछ पीछे छूटे ,
कुछ आये , और इसमें समाये ,
सबसे मिलना , इसके लिए बना खेल खिलौना ,
खुद से ही कहती रहती , अभी और चलो ना !!
आगे आगे चली जा रही !
जीवन नदिया बही जा रही !!
लय में बही तो बहुतों का उपकार हो गया ,
उग्र बही तो ,उधर बहुत संघार हो गया !
शांत बही तो , शीतल मंद बयार हो गया !
भंवर बनी तो कुण्डलिनी बन नृत्य कर गयी !
अपने मीठे जल से सबको तृप्ति कर गयी !
कल कल करती गीत सुनती बही जा रही !
जीवन नदिया बही जा रही !!
पर्वत से सागर तक उसका विस्तार है !
सागर का मुख नदिया का तो मृत्यु द्वार है !
मिली जो सागर से तो उसका नाम मिट गया ,
उसका झर झर बहना भी तो बंद हो गया !
पुनर्जन्म फिर फिर कर होगा ,
परिवर्तन केवल होता है
जीवन चक्र का सार यही है ,
प्रति पल प्रति छ्ण बदल रही है !!
जीवन नदिया बही जा रही !!
-----अनंत चैतन्य लखनऊ ------
यह जीवन नदिया बही जा रही !
इन घाटों पर ,
कुछ योगी है ध्यान लगाये !
कुछ मायावी जाल बिछाए !
नदिया को इनसे क्या लेना ,
प्रति पल प्रति छ्ण बही जा रही !!
जीवन नदिया बही जा रही !!
समय की धारा बस आगे की ओर खिसकती !
पीछे को यह लौट न सकती !
एक रस्ते पर कभी न बहती ,
कभी भटकती , कभी सिसकती ,
सीढ़ी बही ,तो कभी मचलती ,
इसका कोई बिस्तर है न कोई बिछौना ,
इसको तो रुकना न , न ही सोना !
मंजिल पर यह चली जा रही !
जीवन नदिया बही जा रही !!
जब भी यह धरती पर आई ,
यात्रा इसकी शुरू हो गयी ,
कुछ दिन माँ के पास रही फिर
आगे बढ़ी और , धीरे धीरे बड़ी हो गयी !
नित नित नूतन साथी आये ,
नव पथ पर कुछ पीछे छूटे ,
कुछ आये , और इसमें समाये ,
सबसे मिलना , इसके लिए बना खेल खिलौना ,
खुद से ही कहती रहती , अभी और चलो ना !!
आगे आगे चली जा रही !
जीवन नदिया बही जा रही !!
लय में बही तो बहुतों का उपकार हो गया ,
उग्र बही तो ,उधर बहुत संघार हो गया !
शांत बही तो , शीतल मंद बयार हो गया !
भंवर बनी तो कुण्डलिनी बन नृत्य कर गयी !
अपने मीठे जल से सबको तृप्ति कर गयी !
कल कल करती गीत सुनती बही जा रही !
जीवन नदिया बही जा रही !!
पर्वत से सागर तक उसका विस्तार है !
सागर का मुख नदिया का तो मृत्यु द्वार है !
मिली जो सागर से तो उसका नाम मिट गया ,
उसका झर झर बहना भी तो बंद हो गया !
पुनर्जन्म फिर फिर कर होगा ,
परिवर्तन केवल होता है
जीवन चक्र का सार यही है ,
प्रति पल प्रति छ्ण बदल रही है !!
जीवन नदिया बही जा रही !!
-----अनंत चैतन्य लखनऊ ------