सोमवार, 19 दिसंबर 2011

बहुरूपिया

सुना था
दीवारों के कान होते है
किन्तु,
आज उसे बोलते देखा है ,
बोली,
मै तो  अपना रंग
सालों बाद बदलती हूँ
पर तुम्हे हर पल
रंग बदलते देखती हूँ
अकेले में ,
तुम्हे कभी उदास
तो कभी ईश्वर के पास
कभी हँसते , कभी  रोते देखा है

तुम तो एक बहुरूपिया हो
मै ही हूँ जिसने तुम्हारे हर रूप को छिपाया है
मौसम में हवा पानी के थपेड़ो से बचाया है
हर खुशी व् ग़म को तुम्हारे साथ मैंने भी जिया है !!

अनंत चैतन्य
लखनऊ


















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