जलधार में बहता हुआ पत्ता
बीच मझधार में
सर्व स्वीकार में
समय के साथ साथ
अस्तित्व का पकड़ हाथ
बहता ही जा रहा हूँ
निर्भार हो , गीत गुनगुना रहा हूँ !!
कितने ही
गर्वीले
हठीले
भारी भरकम बृक्ष
पड़े है डूबे हुए
दरिया में नीचे
मुझ से बहुत पीछे !!
मुझे देखो
समय की धाराओं पर
नृत्य करता हुआ
कुलाचे भरता हुआ
निकल आया बहुत दूर तक...
..जब साख से टूटा था तब भी कोई न था विरोध
आज भी समय के साथ यात्रा में कोई नही है अवरोध !!
~~~~~~~~अनंत चैतन्य , लखनऊ ~~~~~~~~~
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