कौन था अपना कौन पराया
मै मृग था कुछ समझ न पाया
भटक रहा था वन था पराया
भाग न पाया भरी घुटन में !!
व्रण विष में सब धुले हुए थे
छिप छिप कर सब वार हुए थे
शातिर थे वे चतुर शिकारी
घाव बहुत थे तन मन में !!
जगह जगह पर छला गया था
फिर भी मुझे न कोई गिला था
रतन मेरे हिस्से न आये
कंकड़ पाए बहुत यतन में !!
कस्तूरी तो पास मेरे थी
ढूंढ रहा था वन वन में
मृग मरीचिका जीवन भर थी
प्यास रह गयी तन मन में !!
~~~अनंत चैतन्य , लखनऊ ~~~
मै मृग था कुछ समझ न पाया
भटक रहा था वन था पराया
भाग न पाया भरी घुटन में !!
व्रण विष में सब धुले हुए थे
छिप छिप कर सब वार हुए थे
शातिर थे वे चतुर शिकारी
घाव बहुत थे तन मन में !!
जगह जगह पर छला गया था
फिर भी मुझे न कोई गिला था
रतन मेरे हिस्से न आये
कंकड़ पाए बहुत यतन में !!
कस्तूरी तो पास मेरे थी
ढूंढ रहा था वन वन में
मृग मरीचिका जीवन भर थी
प्यास रह गयी तन मन में !!
~~~अनंत चैतन्य , लखनऊ ~~~
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें