सोमवार, 30 जनवरी 2012

मृग मरीचिका

कौन  था  अपना  कौन  पराया 
मै मृग  था  कुछ  समझ  न  पाया 
भटक  रहा  था  वन  था  पराया 
भाग  न  पाया  भरी  घुटन  में !!

व्रण  विष  में  सब  धुले हुए थे 
छिप  छिप  कर  सब  वार  हुए  थे 
शातिर  थे  वे  चतुर  शिकारी
घाव  बहुत  थे  तन  मन  में  !!

जगह  जगह  पर  छला  गया  था
फिर  भी  मुझे  न  कोई  गिला  था
रतन  मेरे  हिस्से  न  आये 
कंकड़   पाए  बहुत  यतन  में !!

कस्तूरी  तो  पास  मेरे  थी 
ढूंढ  रहा  था  वन  वन  में
मृग  मरीचिका  जीवन  भर  थी 
प्यास  रह  गयी  तन  मन  में !!

~~~अनंत चैतन्य , लखनऊ ~~~

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