भाव के सागर से
विचारों की लहरों पर चढ़ कर
आयीं कुछ निर्दोष सी
प्रज्ञा की सीपें
नक्षत्र स्वाति की बेला में
चेतना की कुछ बूँदें पाते ही
बन गयी श्रद्धा की मोतियाँ
कोमल हाथों से
हलके से बटोर ली मैंने
पिरो लिया विश्वास के धागे में
सदगुरु के हाथ का जादुई स्पर्श पाते ही
जुड़ गयी विराट से , अनंत से ,
फिर पहन ली गलें में
ह्रदय से लगाके
सुधबुध भुलाके !!
~~~~~अनंत चैतन्य , लखनऊ ~~~~~~~~
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