रविवार, 29 अगस्त 2010

भक्ति और ज्ञान

                          भक्ति और ज्ञान                                                                                                                                         

भगतिहि ग्यानीहि नहि कछु भेदा ! उभय हरहि भव संभव खेदा !!

                              हिन्दू दर्शन में दो ह़ी मार्ग इश्वर की प्राप्ति हेतु बताये गए है ! जिसमे से एक है भक्ति मार्ग दूसरा ज्ञान मार्ग ! दोनों का अंतिम लक्ष्य आत्मा का परमात्मा से मिलन है !

                             भक्ति मार्ग के प्रवर्तक देवर्षि नारद जी है तथा ज्ञान मार्ग भगवान् शिव और शिवा के बीच घटे अति आत्मीय संवाद ! ( और भी है पर मै यहाँ प्रमुख रूप से दो को ह़ी ले रहा हूँ )
देवर्षि नारद ने भक्ति के सारे सूत्र भगवान् विष्णु , माँ पार्वती , पितामह के माध्यम से प्राप्त कर , भगवान् व्यास , सूत , शौनिक आदि ८८००० ऋषियों के माध्यम से पुराणों , कथाओं के द्वारा पृथ्वी लोक में पहुचाये ! उद्धरण के तौर पर , सत्य नारायण ब्रत , एकादशी व्रत ,पूर्णिमा . प्रदोष आदि आदि ! भक्ति मार्ग के सूत्र महर्षि नारद एवम भगवान् नारायण के मध्य सेवक स्वामी ( पिता -पुत्र ) में हुए अतिरेक प्रेम संबंधो से उपलब्ध हुए !

                              ज्ञान मार्ग ( ध्यान , योग , तंत्र , मंत्र , यन्त्र आदि ) के सारे सूत्र जगदम्बा माँ और भगवान् शिव के बीच गुरु शिष्य संबंधों द्वारा अतिरेक करुना , प्रेम के माध्यम से गुरु परंपरा के माध्यम से जन मानस को प्राप्त हुए !


                              दोनों ह़ी मार्गो के सूत्रों को प्राप्ति का माध्यम अतिशय प्रेम , अतिरेक में करुणा तथा जन हित का भाव ह़ी था !

                             वस्तुतः भक्ति मार्ग को जितना सरल समझा जाता है उतना है नही ! एक मायने में बहुत सरल किन्तु व्यवहारिक दृष्टि कोण से यह सर्वाधिक कठिन मार्ग है ! इसमें बस एक ह़ी छलांग लगानी होती है वह है भाव जगत से भगवान् की ओर ..और दूसरा कोई step नही ! द्वेतभाव भाव से अद्वेत में पहुच जाना ! भक्त को पत्थर ( जड़ ) में जब भगवान् ( पूर्ण चेतना ) देखना शुरू करता है तभी समझो यात्रा प्रारंभ हुई ! जब भक्त को ..." सीय राम मय सब जग जानि " का अनुभव होने लगे ..और सारे साधन ( पुष्प , दीप , नैवेद्य आदि ) दूर हो जाए ..क्यों की साधन अब उसे ईश दिखने लगे ..समझो छलांग लग गयी !

                             भक्त या तो परमहंस के भाव दशा में होगा या विछिप्त ..बीच की कोई स्थिति नही है ! केवल क्रिया से भक्त नही हो सकता ..! जो व्यक्ति अपने ह़ी घर से सदस्यों ( चेतन ) से प्रेम नही कर सकता वह उस जड़ मूर्ति से कैसे प्रेम करेगा ..तात्पर्य यह की अभी उसकी भक्ति छलावा है ! भक्ति भाव की उच्च दशा है अभ्यास नही ! भक्ति मार्ग में भक्त को नही जाना होता भगवान् खुद चलकर आते है , जबकि ज्ञान में साधना के माध्यम से परम सत्ता तक पहुचना होता है !


                             भक्ति की बात हो और मीरा का , शबरी का नाम न आये ..कैसे हो सकता है ! इनको हम सम्पूर्ण भक्त कहेगे ! मीरा तो सशरीर द्वारिकाधीश में समा गयी , अद्वेत घट गया !


सोह्मिस्म इति वृत्त अखंडा ! दीप शिखा सोई परम प्रचंडा !!

परम प्रकाश रूप दिन राती ! नहि कछु चाहिय दिया घृत बाती !!

                            ग्यान मार्ग क्रम बद्ध ( step by step ) साधनात्मक क्रियायों द्वारा इस्वर तक पंहुचा जाता है ! गुरु यहाँ मात्र गुरु न होकर इश्वर का रूप होता है ! शिष्य को एक एक सीढ़ी चढाने की प्रक्रिया बताते है ! सद गुरु के प्रति समर्पण श्रद्धा विश्वास से साधक हल्का होता जाता है ! सदगुरु कभी कभी शक्तिपात के माध्यम से शिष्य को उपर खींच लेता है !


                           अस्तु , जो जिस को सरल लगे अपना ले !



  सदगुरु कृपा केवलम..








प्रणाम
अनन्त पथ का पथिक
स्वामी अनन्त चैतन्य
लखनऊ

शुक्रवार, 27 अगस्त 2010

श्री राम जन्म स्तुति


श्री राम जन्म स्तुति


भये प्रगट कृपाला दीनदयाला कौशल्या हितकारी
हर्षित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप बिचारी





लोचन अभिरामा तनु घनस्यामा निज आयुध भुज चारी
भूषन बनमाला नयन बिसाला शोभासिंधु खरारी




 


कह दुई कर जोरी अस्तुति तोरी केही बिधि करों अनंता
माया गुण ग्यानातीत अमाना बेद पुरान भनंता



करुना सुख सागर सब गुण आगर जेहि गावहि श्रुति संता
सो मम हित लागी जन अनुरागी भयउ प्रगट श्री कांता





भ्रह्मांड निकाया निर्मित माया रोम रोम प्रति बेद कहै
मम उर सो बासी यह उपहासी सुनत धीर मति थिर न रहै




उपजा जब ज्ञाना प्रभु मुसुकाना चरित बहुत बिधि कीन्ह चहैं
कहि कथा सुहाई मातु बुझाई जेहि प्रकार सुत प्रेम लहै





माता पुनि बोली सो मति डोली तजहु तात यह रूपा
कीजै सिसुलीला अति प्रियसीला यह सुख परम अनूपा


सुनी बचन सुजाना रोदन ठाना होई बालक सुरभूपा
यह चरित जे गावहि हरिपद पावहि ते न परहि भव कूपा



दोहा

बिप्र धेनु सुर संत हित लीन्ह मनुज अवतार !
निज इक्षा निर्मित       तनु माया गुन गो पार !!

बाल काण्ड – दोहा 192



अनन्त पथ का पथिक
स्वामी अनन्त चैतन्य
लखनऊ

ज्ञात , अज्ञात . अज्ञेय


ज्ञात , अज्ञात . अज्ञेय


                              जीवन में दो तरह की यात्राएँ है , एक सांसारिक एक आध्यात्मिक अथवा दूसरी तरह से कहे की एक वाह्य जगत की यात्रा एक अंतर जगत की यात्रा ! ज्ञात से ज्ञात की ओर बढ़ना सांसारिक उपक्रम है , ज्ञात से अज्ञात की ओर जिसका लक्ष्य अज्ञेय की खोज है वह आध्यात्मिक यात्रा है !

                             जीवन में जब सब कुछ व्यवस्थित एक ढर्रे पर चल रहा है तो समझो ज्ञात से ज्ञात की ओर ही चल रहे है ! इसमें सब कुछ पता है सुबह होगी सारे काम तयशुदा कार्यक्रम से किये जाने है ...वही रास्ता वही साधन , वही व्यवस्थाये , वही कार्य प्रणाली ..सब ज्ञात ! बस थोड़े से हेरफेर के साथ ! इसमें भौतिक विकास तो हो सकता है लेकिन सजगता का अभाव रहता है ! क्योकि कुछ भी आश्चर्यजनक नहीं !

                            तथा कथित आध्यात्म में भी हम ज्ञात से ज्ञात में ही घूमते रहते है , घर में रखी मूर्तियों को स्नान कराना , भोग लगाकर कर स्वयं ग्रहण कर लेना आदि आदि ..सब कुछ तय बिना किसी भक्ति भाव के केवल एक दैनिक कार्यक्रम के तहत भगवान की सेवा मशीन की तरह ...यह सब अच्छा है लेकिन इस से कोई रूपांतरण नहीं घटने वाला , जब तक संवेदनाये , भाव को न जोड़ी जाय !

                              ज्ञात से अज्ञात का रास्ता थोडा भिन्न है , मानो हम किसी अनजान रास्ते से चल रहे हो ..हमें उस रास्ते के एक एक परिद्रश्य मोहित करेंगे , आकर्षित करेंगे ! एक एक वस्तु भले ही साधारण क्यों न हो बिलकुल नए setting के साथ अच्छी दिखेगी ! अज्ञात के रास्ते पर कुछ भी तय नहीं कब कौन मिल जाए ..सब विचित्र सा ! शायद इसी कारण से इश्वर ने जीवन म्रत्यु को अज्ञात जगत में डाल रखा है ! किसी को अगर अपने मृत्यु की तिथि सही सही मालूम हो जाए तो उसका जीवन ही म्रत्यु जैसा हो जाएगा !

                              अज्ञात में आनंद है , thrill है , इसी लिए आध्यात्म का नशा बहुत नशीला और मजेदार होता है !

                               ज्योतिषियों से क्यों जानना चाहते हो ? इसलिए की निश्चिन्त हो जाओगे ..इसमें असली शान्ति नहीं मिल सकेगी !

                               अज्ञेय को जाना ही नहीं जा सकता ! बूँद सागर में मिलकर सागर को जान न पाएगी क्योकि वह बूँद ही नहीं बची जो सागर को जान सके , सागर में उसका अस्तित्व मिट गया है ! इसी लिए अज्ञेय की खोज अनन्त यात्रा है ...........


                              बस अपने गहरे अंतस में उतर जाओ ..अगला पल कहा ले जाएगा सब अस्तित्व पर छोड़ दो ..........







प्रणाम

अनन्त पथ का पथिक
स्वामी अनन्त चैतन्य
लखनऊ

गुरुवार, 26 अगस्त 2010

साधना एक नदी की भांति


साधना एक नदी की भांति


साधना में हम किस पड़ाव पर चल रहे है यह मापने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए ! न ही इस बात की चिंता की अभी कौन सा चक्र जाग्रत है कौन सा नहीं ! मेरे विचार से न तो स्वयं इसका आकलन करना चाहिए न ही इस बारे में सदगुरु से पूछना चाहिए , हाँ अपने अनुभवों को इमानदारी से सदगुरु को बताना चाहिए , जिससे मार्ग दिशा मिल सके !

साधक को केवल अंतिम लक्ष्य महासागर में विलीन होने तक रखना चाहिए ! साधना रुपी नदी कब सीधी बहेगी , कहा गहराई , कहा उथली , कहा किस ओर मुड़ना है यह ध्यान देने की बात नहीं होनी चाहिए ..बस अविरल बहते ही रहना अंतिम लक्ष्य तक ! साधना में भी ऋतुओ के अनुसार कभी उफान , कभी धीमी गति , कभी विकराल तो कभी सौम्य दशाये आती है ..यह सब स्वाभाविक रूप है ..साधना अपना रास्ता खुद ही चुन लेगी बस सजगता से निहारते रहे !

हाँ यह जरूर होना चाहिए की गुरु की श्रधा , विश्वास रूपी दो छोरे के बंधन की सीमा रहे ..इससे गति मिलती है ..साधना के बहाव में !

साधना रुपी नदी को भी अनजान , अज्ञात , ऊबड़ , खाबड़ , वन , पर्वतों के बीच रास्तों से पार होना पड़ता है ! इस यात्रा में विश्राम नहीं है ..विश्राम हुवा नहीं की लक्ष्य भटका ...बस यह एक अकेले की यात्रा है ..गुरु के श्रधा विश्वास रुपी किनारे संभाल कर रखते हुए महासागर में पंहुचा देंगे ..बस सब अस्तित्व के सहारे छोड़ दे !

बस आवश्यकता है एक नदी बनने की ..लक्ष्य कठिन जरूर असम्भव नहीं !




प्रणाम

स्वामी अनन्त चैतन्य

लखनऊ

गुरुवार, 19 अगस्त 2010

वेद स्तुति



भगवान् श्री राम

भगवान ब्रह्माजी द्वारा वेद स्तुतिया

वेद स्तुति


छंद
जय सगुन निर्गुण रूप रूप अनूप भूप सिरोमने
दस कंधारादी प्रचंड निसिचर प्रबल खल भुज बाल हने

अवतार नर संसार भार बिभंज दारुण दुःख दहे
जय प्रनतपाल दयाल प्रभु संजुक्त सक्ति नमामहे

तव बिषम माया बस सुरासुर नाग नर अग जग हरे
भाव पंथ भ्रमत अमित दिवस निस काल कर्म गुननि भरे

जे नाथ करि करुना बिलोके त्रिबिध दुःख ते निर्बहे
भव खेद छेदन दच्छ हम कहूँ रछ राम नमामहे

जे ज्ञान मान बिमत्त तव भव हरनि भक्ति न आदरी
ते पाई सुर दुर्लभ पदादापी परत हम देखत हरइ

बिस्वास करी सब आस परिहरि दास तव जे होई रहे
जपि नाम तव बिनु श्रम तरही भाव नाथ सो समरामहे

जे चरण सिव अज पूज्य रज सुभ परसि मुनिपतिनी तरी
नख निर्गता मुनि बंदिता त्रिलोक पावनि सुरसरी

ध्वज कुलिस अंकुस कंज जुट बन फिरत कंटक किन लहे
पद कंज द्वन्द मुकुंद राम रमेस नित्य भजामहे

अब्व्यकता मूलमनादी तरु त्वच चारी निगमागम भने
षत कंध साखा पञ्च बीस अनेक पर्ण सुमन घने

फल जुगल बिधि कटु मधुर बेली अकेलि जेहि आश्रित रहे
पल्लवत फूलत नवल नित संसार बिटप नमामहे

जे ब्रह्मा अजमाद्वैतामनुभाव्गाम्य मन पर ध्यावही
ते कहहु जानहु नाथ हम तव सगुन जस नित गावहि

करुनायतन प्रभु सदगुनाकर देव यह बर मागहि
मन बचन कर्म बिकार तजि तव चरण हम अनुरागही

दोहा

सब के देखत बेदंह बिनती कीन्हि उदार
अंतरधान भए पुनि गए ब्रह्म आगार

(राम चरित मानस - उत्तरकाण्ड – दोहा 13a )



राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम




शनिवार, 14 अगस्त 2010

जैसी दृष्टि वैसी स्रष्टि

श्री सदगुरुवे नमः
( सदगुरु श्री कुणाल कृष्ण )
( सम्बुद्ध रहस्य दर्शी एवम संस्थापक अनन्त पथ )

जैसी दृष्टि वैसी स्रष्टि

हमारी दुनिया हमारे ही सोच से उत्पन्न होती है ! जैसी हमारी दृष्टी होगी उसी तरह की दुनिया हमारे लिए निर्मित हो जायेगी ! व्यक्ति का मन ही उसकी दुनिया का सूत्रधार है , उसकी सृष्टी की संरचना हेतु ! जहा तक हम सोच सकते है वह तक हमारा विस्तार संभव है ! जैसे जल जिस सीमा में बंधा होता है उसकी वही दुनिया बन जाती है - छोटे पात्र का जल , कुए का , पोखर का , नदी का जल और अंततः सुमुद्र स्थित जल ! सबकी अलग सीमा , अलग दुनिया !


इस सम्बन्ध में एक उदाहरण  प्रस्तुत है --

एक महात्मा जी अपनी मौज में प्रकृति सौंदर्य को रसास्वादन करते करते एक नदी के तट पर पहुत गए ! बड़े ही शांत मुद्रा में अपने मौन में वार्तालाप कर रहे थे ..कलरव करती नदी की अविरल धारा के प्रवाह को निहार रहे थे ! ....तभी वहां ३ व्यक्ति आये और आपस में बाते करने लगे की यह स्वामी जी क्या देख रहे होंगे ! एक बोला नदी के उस पार की जमीन हथियाना चाहते है अपने आश्रम के लिए , दूसरे ने कहा सामने नहाती हुई बालाओ को ताक़ रहे है तीसरे ने कहा नहीं यह नदी को देख रहे है की कितनी गहरी होगी ! तीनो एक मत न हो सके आखिर तय हुआ की क्यों न बाबाजी से ही पूछा जाये की क्या देख रहे है और उनसे ही अपने बात की पुष्टि करा ली जाए ! बाबाजी ने सारी बाते सुन कर कहा बेटे सच कहो तो हम इन तीनो बातो में से कुछ नहीं देख या सोच रहे थे ! हम तो इन सभी के रचनाकार परम चेतन , अनन्त सत्ता , सीमा रहित इश्वर के ध्यान में खोये थे ! कहने का मतलब यह की यहाँ चार लोगो की अलग अलग दुनिया थी !

सारांश यह की कल्पना या यथार्थ दोनों की परिस्थितियों का महा नायक मेरा मन ही है !

जब हम focus कर लेते है अपने को किसी सीमा विशेष तक तब वहां तक अपनी दुनिया का श्रजन कर पाते है ! जब हम विराट में सोचने लगते है तो मेरे निर्णय भी विराट रूप धारण कर लेते है ! कभी इस बात का प्रयोग करके देखे -- जब भी हमें जीवन के बड़े फैसले लेने हो तो उससे पूर्व खुले आकाश को पूर्णता से देखे , कुछ समय अपने में विराटता का अनुभव करे ! उस के बाद देखेगे की जो निर्णय पहले ले रहे थे उसकी सोच बदल गयी है , अब व्यापकता को लिए हुई है !

कभी छोटे बच्चे को देखा है वह पूर्ण दृष्टी से देखता है , उसमे निश्चल भाव , भोलापन , प्रसनता पूर्ण रूप से विद्यमान होती है ! उस के ऊर्जा का स्तर बहुत अधिक होता है , और उसके दृष्टि में सब समाहित होता है ! संसार में जितने भी महत्वपूर्ण व्यक्ति हुए है उनकी दृष्टी सीमित नहीं थी , उनके सोचने का नजरिया , जीवन जीने का नजरिया व्यापक था ! इसी लिए वे महान बने !



प्रणाम

अनन्त पथ का पथिक

स्वामी अनन्त चैतन्य

लखनऊ

रविवार, 8 अगस्त 2010

द्वादश ज्योतिर्लिंग स्तोत्र

श्री सदगुरुवे नमः

ॐ नमः शिवाय ॐ नमः शिवाय ॐ नमः शिवाय ॐ नमः शिवाय ॐ नमः शिवाय ॐ नमः शिवाय ॐ नमः शिवाय



ॐ नमः शिवाय ॐ नमः शिवाय ॐ नमः शिवाय ॐ नमः शिवाय ॐ नमः शिवाय ॐ नमः शिवाय
ॐ नमः शिवाय ॐ नमः शिवाय ॐ नमः शिवाय ॐ नमः शिवाय ॐ नमः शिवाय ॐ नमः शिवाय
ॐ नमः शिवाय ॐ नमः शिवाय ॐ नमः शिवाय ॐ नमः शिवाय ॐ नमः शिवाय ॐ नमः शिवाय




नंदी बाबा
अगस्त्य महामुनि
महावतार बाबा
सदगुरु श्रद्धेय श्री कुणाल कृष्ण
( सम्बुद्ध रहस्यदर्शी एवम संस्थापक अनंत पथ )

द्वादश ज्योतिर्लिंग स्तोत्र


ॐ नमः शिवाय ॐ नमः शिवाय ॐ नमः शिवाय ॐ नमः शिवाय ॐ नमः शिवाय ॐ नमः शिवाय ॐ नमः शिवाय


सौराष्ट्रे सोमनाथं      च श्री शैले मल्लिकार्जुनम
उज्जयिन्यां महाकालं ओम्कारम मम्लेश्वरम !!

परल्याम वैज्यनाथं च डाकिन्याम भीम शंकरं
सेतु बंधे तु   रामेशं       नागेशं द्वारुकावने !!

वाराणास्याम तु   विश्वेशं त्र्यम्बकं गौतमी तटे
हिमालये    तु केदारं   घुश्मेशम   च शिवालये !!

एतानि  ज्योतिर लिंगानि    सायं प्रातः पत्ठेन्नर
सप्त   जन्म   कृतं पापं     स्मरनें     विनश्यति !!

ॐ नमः शिवाय ॐ नमः शिवाय ॐ नमः शिवाय ॐ नमः शिवाय ॐ नमः शिवाय ॐ नमः शिवाय ॐ नमः शिवाय





अनन्त पथ का पथिक

स्वामी अनंत चैतन्य
लखनऊ


शनिवार, 7 अगस्त 2010

एक यक्ष प्रश्न - कौन हूँ मै ?

श्री सदगुरुवे नमः



सदगुरु श्रद्धेय श्री कुणाल कृष्ण
    ( सम्बुद्ध रहस्यदर्शी एवम संस्थापक अनंत पथ )

कौन हूँ मै  ?


( मेरे मन की पीड़ा एक कविता के रूप में )



एक यक्ष प्रश्न
बार बार उठता है,
मेरे अचेतन से
कौन हूँ मै ?
आया यहाँ
काम क्या था ?
खोज रहा हूँ उत्तर
अपने अंतरतम में !

दिन रात बीत रहा
काल चक्र घूम रहा
पल पल हो रहा व्यथित
अनंत पथ का यह पथिक
स्वयं को खोज सकू

तन न रहे
मन न रहे
मेरे में " मै " न रहे
सुगंध बन जाए मलय
बूँद सागर में गिर के !
शून्य में विलीन होकर
असीम अद्वैत में !!



*********
 सदगुरु देव के चरणों में समर्पित एक पुष्पांजलि

अनंत पथ का एक पथिक



स्वामी अनंत चैतन्य
लखनऊ

बुधवार, 4 अगस्त 2010

अनंत पथ --एक प्रेम पथ

श्री सदगुरुवे नमः

सदगुरु श्रद्धेय श्री कुणाल कृष्ण
( सम्बुद्ध रहस्यदर्शी एवम संस्थापक अनंत पथ )



अनंत पथ --एक प्रेम पथ
 ( सूफियाना अंदाज )

अमीर खुसरो
( सूफी संत )
का
    प्रेम पथ  

री सखी मोरे पिया घर आए
भाग लगे इस आँगन को
बल-बल जाऊँ मैं अपने पिया के, चरन लगायो निर्धन को।
मैं तो खड़ी थी आस लगाए, मेंहदी कजरा माँग सजाए।
देख सुरतिया अपने पिया की, हार गई मैं तन मन को।
जिसका पिया संग बीते सावन, उस दुल्हन की रैन सुहागन।
जिस सावन में पिया घर नाहि, आग लगे उस सावन को।
अपने पिया को मैं किस विध पाऊँ, लाज की मारी मैं तो डूबी डूबी जाऊँ
तुम ही जतन करो ऐ री सखी री, मै मन भाऊँ साजन को।
 
 
जब यार देखा नैन भर दिल की गई चिंता उतर
ऐसा नहीं कोई अजब राखे उसे समझाए कर ।
जब आँख से ओझल भया, तड़पन लगा मेरा जिया
हक्का इलाही क्या किया, आँसू चले भर लाय कर ।
तू तो हमारा यार है, तुझ पर हमारा प्यार है
तुझ दोस्ती बिसियार है एक शब मिलो तुम आय कर ।
जाना तलब तेरी करूँ दीगर तलब किसकी करूँ
तेरी जो चिंता दिल धरूँ, एक दिन मिलो तुम आय कर ।
मेरा जो मन तुमने लिया, तुमने उठा गम को दिया
तुमने मुझे ऐसा किया, जैसा पतंगा आग पर ।
खुसरो कहै बातां ग़ज़ब, दिल में न लावे कुछ अजब
कुदरत खुदा की है अजब, जब जिव दिया गुल लाय कर ।


अब आए न मोरे साँवरिया, मैं तो तन मन उन पर लुटा देती।
घर आए न मोरे साँवरिया, मैं तो तन मन उन पर लुटा देती।
मोहे प्रीत की रीत न भाई सखी, मैं तो बन के दुल्हन पछताई सखी।
होती न अगर दुनिया की शरम मैं तो भेज के पतियाँ बुला लेती।
उन्हें भेज के सखियाँ बुला लेती।
जो मैं जानती बिसरत हैं सैय्या।



अपनी छवि बनाइ के जो मैं पी के पास गई,
जब छवि देखी पीहू की तो अपनी भूल गई।
छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैंना मिलाइ के
बात अघम कह दीन्हीं रे मोसे नैंना मिलाइ के।
बल बल जाऊँ मैं तोरे रंगरिजवा
अपनी सी रंग दीन्हीं रे मोसे नैंना मिलाइ के।
प्रेम बटी का मदवा पिलाय के मतवारी कर दीन्हीं रे
मोसे नैंना मिलाइ के।
गोरी-गोरी बइयाँ हरी - हरी चुरियाँ
बइयाँ पकर हर लीन्हीं रे मोसे नैंना मिलाइ के।
खुसरो निजाम के बल-बल जइए
मोहे सुहागन कीन्हीं रे मोसे नैंना मिलाइ के।
री सखी मोरे पिया घर आए


भाग लगे इस आँगन को
बल-बल जाऊँ मैं अपने पिया के, चरन लगायो निर्धन को।
मैं तो खड़ी थी आस लगाए, मेंहदी कजरा माँग सजाए।
देख सुरतिया अपने पिया की, हार गई मैं तन मन को।
जिसका पिया संग बीते सावन, उस दुल्हन की रैन सुहागन।
जिस सावन में पिया घर नाहि, आग लगे उस सावन को।
अपने पिया को मैं किस विध पाऊँ, लाज की मारी मैं तो डूबी डूबी जाऊँ
तुम ही जतन करो ऐ री सखी री, मै मन भाऊँ साजन को।





जो मैं जानती बिसरत हैं सैय्या
जो मैं जानती बिसरत हैं सैय्या, घुँघटा में आग लगा देती,
मैं लाज के बंधन तोड़ सखी पिया प्यार को अपने मना लेती।
इन चुरियों की लाज पिया रखना, ये तो पहन लई अब उतरत ना
मोरा भाग सुहाग तुमई से है मैं तो तुम ही पर जुबना लुटा बैठी
मोरे हार सिंगार की रात गई, पियू संग उमंग की बात गई
पियू संग उमंग मेरी आस नई।



संग्रह कर्ता

अनंत पथ का पथिक

स्वामी अनंत चैतन्य
लखनऊ