श्री गणेशाय नमः
अहं पर चोट
अहं के सम्बन्ध में अगर कहा जाए तो वस्तुतः उसके २ पक्ष है या यह कहे कि अहं की एक सीढ़ी किसी को उत्थान कि ओर प्रेरित करती है तो दूसरी ओर यह किसी को गर्त में भी ले जाकर पटक सकती है ! जब अहं आत्मबल के रूप को प्रकट करती है तो वह विवेक पैदा करती है , उन्नति कारक है ! किन्तु जब यह भौतिक अथवा ज्ञान बल को प्रदर्शित करती है तो यही पतन का कारक भी बन जाती है ! धन का ,शरीर का , सौंदर्य का , संपत्ति का , सत्ता का अहं वैक्तित्व के विकास हेतु पर्वत कि तरह से रोड़ा बन जाती है !
वस्तुतः अहं पर लगी चोट अहं को तोड़ती है एवं प्रगति का मार्ग प्रशस्ति करती है . जब तक वस्तुतः अहं चोटिल न हो वह विकसित नहीं होता एवं तब तक आध्यत्मिक उन्नति संभव नहीं हो पाती !
गोस्वामी तुलसी दास जी ने कहा है कि " प्रभुता पाई क़ाहि मद नही " ! मद अर्थात नशा ! नशा व्यक्ति को बेहोश बना देता है , विवेक हर लेता है ! फिर वह जाहे किसी को क्यों भी क्यों न हो ! हमारे धर्म ग्रंथो में बहुत बार चर्चा आती ही बड़े बड़े पुरुषार्थियो के अहं को तोड़ने के लिए इश्वर द्वारा तरह तरह के रंगमंच तैयार किये गए ! इनमे से कुछ उदाहरण है ...नारद जी , परसुराम जी , सुदर्शन चक्र , गरुण जी , इन्द्र देव, ब्रह्मा जी , अर्जुन आदि आदि .
अब बात करते है अहं कि चोट ने किन किन को महान बनाया इस में बालक ध्रुव प्रमुख है , अगर सौतेली माँ ने उनके अहं पर चोट न किया होता तो क्या आज ध्रुव अंतरिक्ष में अटल कि उपाधि से दैदेप्तिमान होते ! तुलसीदास जी के अहं को उनकी पत्नी ने चोटिल किया होता तो , आज उनका कोई नाम लेने वाला न होता ! अहं पर चोट हुयी अन्दर कि प्रतिभा प्रज्वलित हो उठी !
हिन्दू दर्शन में गुरु शिष्य परंपरा इस विषय का महत्वपूर्ण सूत्र है ! जब शिष्य अपने शीश को सदगुरु के चरणों में असीम श्रद्धाभाव से रखता है तभी से उसके अहं का बीज गलना शुरू हो जाता है और विवेक रुपी विराट बृक्ष बनने के प्रक्रिया प्रारंभ हो जाती है !
वस्तुतः हिन्दू दर्शन के सूत्र बिना किसी प्रयोग के बस यूं ही नहीं बनाये गए है ! उन पर बहुत व्यापक प्रयोग किये गए है !ऋषियों की वनस्थालिया प्रयोगशालाये ही थी , जिनमे निरंतर प्रयोग चलते रहते थे ! जैसे अपनों से सम्माननियो के चरण स्पर्श करने का सूत्र अहं को गलने के लिए किया गया था ! जब व्यक्ति अपने से बड़े के चरण छूता था और उसे अपने सिर से लगता था उस का तात्पर्य यही था की जहा मेरी सीमा समाप्त होती है वहा से समाननीय की सीमा का प्रारंभ होता है ! अर्थात सिर व्यक्ति का सर्वोच्च स्थान है और पैर प्रारभिक . इस सूत्र को बाद में फिर हमने मान्यताओ के रूप में स्वीकार किया , जो वर्तमान में भाव प्रधान न होकर बस रिश्तों की खानापूर्ती बन कर रह गयी !मंदिरों के दर्शन , गुरुवो के दर्शन , संत महात्माओ के दर्शन का मुख्य सूत्र ही अहं को मिटाना होता था जिससे कि आगे की ( आध्ध्यात्मिक ) यात्रा सुगम हो जाए !
अहकार पर सही मायनों में चोट लगना और उस का अनुभव कर लेना व्यक्ति को विनम्र बनती है ! मेरे गाँव की एक घटना है जिसे आप से चर्चा करना चाहता हूँ ! गाव में एक बहुत साधन सम्पन्न व्यक्ति था जो किसी के भी सुख दुःख में कभी शामिल नहीं होता था ! दुर्भाग्य से एक दिन उसका छोटा बेटा बीमारी से मर गया , किन्तु उसके अंतिम क्रिया हेतु गाँव का कोई भी व्यक्ति नहीं गया ( हालाकि इस कृत्य को व्यक्तिगत रूप से मै उचित नहीं मानता ) केवल उस के घर से ही २ सदस्य क्रिया कर्म में रहे ! किन्तु उस घटना ने घमंडी व्यक्ति की आँखे खोल दी ! उस दिन के बाद से आज गाँव में कोई भी छोटा , बड़ा कार्य हो वह व्यक्ति परिवार सहित पूरें तन मन, धन से सम्मिलित होता है ! धटना सुनाने से यहाँ तात्पर्य यह ही है कि जब तक जोर की चोट नहीं पड़ती है तब तक परिवर्तन नहीं घटते !
अंत में यही कहना है कि अहं का टूटना बहुत ही आवश्यक है नही तो फिर परिणाम अच्छे नहीं देखे जाते !
प्रणाम
स्वामी अनंत चैतन्य
लखनऊ
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